जीवित समाधि

एकान्त वास करते हुए केवल साधना मेे ही लीन रहने की इच्छा से भक्त प्रवर मोहन दास जी ने अपने भान्जे उदयराम जी को श्री बालाजी महाराज की सेवा सौंप कर मंदिर का प्रथम पुजारी नियुक्त क कुछ समय बाद उन्होंने जीवित समाधि लेने का निश्चय किया। उस अवसर पर ग्रामवासियों, साधु-सन्तों के अतिरिक्त श्री हनुमान जी (बालाजी) भी पधारें। समाधि ग्रहण के पूर्व भक्त प्रवर श्री मोहनदास जी ने श्री बालाजी से करबद्ध प्रार्थना की। बहन कान्ही के पुत्र उदयराम एवं उनके वंशजों को ग्रहस्थ रहते हुए पूजा-अर्चना सेवा करते रहने एवं दीर्घनायु प्राप्त करने का आशीर्वाद प्रदान करेंं। तत् पश्चात् सवंत् (1850) 1850 को वैशाख शुक त्रयोदशी को प्रातःकाल भक्त शिरोमणि मोहनदास जी ने जीवित समाधि ले ली।

प्रातः आरती के पश्चात् भक्त प्रवर मोहनदास जी कान्ही दादी की समाधि पर आरती एवं भोग पूजन किया जाता है। इसी प्रकार संध्या आरती से पूर्व भाई-बहन की आरती पूजन के बाद श्री बालाजी महाराज की आरती होती है।

मोहन मंदिर
(समाधि स्थल )

श्री

भक्त शिरोमणि मोहन दास जी महाराज की तपोस्थली

श्री बालाजी मंदिर के दक्षिण द्वार पर संत शिरोमणि भक्त प्रवर श्री मोहन दास जी महाराज की तपस्या का स्थान है, इसको धूणा कहते है।
यहाँ पर उसी समय से अखण्ड अग्नि की धूणी प्रज्जवलित है। इसकी विभूति का बड़ा महत्व माना जाता है।

समाधि स्मारक का शिला लेख

भक्त प्रवर श्री मोहनदास जी एवं बहन कान्ही दादी जी का समाधि स्थल पर शिलालेख पुत्र उदयराम जी द्वारा संवत् 1852 शनिवार के दिन स्थापित कर बनवाया गया।